कठोरता के बारे में तो हम इंसानों की बातें करना छोड़ ही दिए हैं। कठोरता ही क्या, जब से मनुष्य लोमड़ी, कुत्ता, हाथी, गिरगिट और उल्लुओं का हक छीन लिया है तब से हम गधे ही सही पर सीधे और सधे हो गए हैं। खरबूजा पर तो पहले से ही नजर थी। सबकी हालत बिगड़ती देखकर अब नारियल भी पहले से अधिक कठोर हो गया है।
पहले घास फूस या मिट्टी के घर होते थे। पेड़ पौधे भी हर तरफ से मिट्टी से घिरे होते थे। बढ़ते थे, फूलते थे, फलते थे, गिरते थे, खड़े होते थे....। फल - फूल भी मिट्टी में गिरकर जल- स्नान के बाद चंगे हो जाते थे। लेकिन जब से हम नंगे होने लगे, हर जगह दंगे होने लगे। कांक्रीट के जंगल बनने लगे। असली पौधे तो गमले में आकर छुपने लगे।
कांक्रीट ने इतना कहर ढाया कि पेड़- पौधों से गिरने वाले फल- फूल तरस गए धूल के चुम्बन के लिए। सिर्फ नाजुक होंठ ही नहीं, कपोल भी थुरा जाते हैं टकराकर। बेचारा नारियल अपने भीतर शीतल और मीठे रस को छुपाकर माटी से गले लग जाता था। फिर कांक्रीट पर गिरकर टूटने लगा, बिखरने लगा, अपना पानी खोने लगा, रोने लगा....। ये सब देखकर पथरीले या सीमेंटेड जंगल मुस्कुराने लगे। कठोर होने का दम्भ भरने लगे।
नारियल भी कब तक चुप बैठता! जब बात अपने अस्तित्व की हो तो शबनम भी शोला बन जाती है। ममता भी समता व ममत्व त्याग देती है। मनमोहन भी मन से दूर हो जाता है। नमो भी मौन हो जाता है। मुलायम भी कठोर हो जाता है। नारियल भी कठोर होने लगा बाबा रामदेव का योग ज्वाइन करके। अब कोई उसकी ओर आँख दिखाने का साहस नहीं करता। लेकिन बेचारी सड़कें दुखी हैं। जब से इनपर कांक्रीट की बेढंगी और झीनी सी परत चढ़ी है, इनका बुरा है। नेताओं की फौलादी घोषणा, इंजीनियर का तकनीक और ठेकेदार का शपथ, सब के सब बेमानी हो गए हैं। बच्चों की तरह उछलता- कूदता नारियल आता है और सड़कों की छाती पर घूसा मार देता है, अपनी साइज से बड़ा निशान बनाकर मुँह चिढ़ाता है। ऐसा नहीं है कि मेकअप करके सजी सड़कें दुहाई नहीं दीं। किसी ने उनकी एक न सुनी। थक हारकर सड़कों ने नारियल के आगे अपने अस्तित्व की लाज बचाने का आग्रह किया। सड़कों ने दैन्य भाव से निवेदन किया कि तुम तो इतने कठोर न बनो......!
-:डॉ अवधेश कुमार अवध ,'मेघालय '

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बधाइयां शुभकामनाएं
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