गया!
आया, अभी आया..
करते-करते चौदह साल बीत गए। पर इस साल के पितृ पक्ष में हम भोपाल से एक हजार किलोमीटर दूर गया शहर पहुंच ही गए। बिहार का गया, जो अब सरकारी कागजों में गयाजी हो चुका है। बिहार में पटना के बाद दूसरा सबसे बड़ा शहर। पारिवारिक विरासत के सूत्रों को परंपराओं और स्मृतियों में सहेजने की चाहत रखने वालों का तीर्थ। पुरखों की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने की कामना का गंतव्य। श्रद्धा के समर्पण के लिए रचित श्राद्ध महापर्व की पूर्णाहुति का यज्ञस्थल।
गया जाते हुए मन में बिहार की वर्षों से उकेरी गई एक तस्वीर थी। जिसमें विकास के रंग धुंधले थे, जातिवाद के जंजाल में फंसी राजनीति का अप्रिय चेहरा था और सभ्यता से भीख मांगती संस्कृति झांक रही थी। ट्रेन में हम बतिया रहे थे कि किसी समय अकेली महिला का यहां यात्रा करना कितना कठिन था। कई जगह लोगों ने हाथ से लिखे बोर्ड लगाकर अपने-अपने रेलवे स्टेशन बना लिए थे और दबंगई से ट्रेन को रोकते थे। सो, गया में पितृ तर्पण बिना किसी झमेले के संपन्न हो जाएगा, यह सोचना ही कल्पनातीत था। वहां अगले महीने के आसपास होने जा रहे राज्य विधानसभा के चुनाव का एक चित्र भी मन में था जिसमें टीवी चैनलों ने अपने-अपने रंग भरे थे।
पर वह गया, अब यह गया कुछ अलग था। पुरातनता इसके पोर-पोर से झलक रही थी। हर पुराने शहर की तरह गलियां, चौक और पुरानी इमारतें थीं और झक सफेद चादरों पर मसनद पर बिराजमान सेठ थे। 1942 में स्थापित केदारनाथ मार्केट में अब मंडी लगती है। चौक में जाकर लगेगा जैसे भोपाल और विदिशा जैसे शहर में खड़े हैं। पुराने शहर में कुछ मशहूर दुकानों की तरफ एक मित्र ले जाते हैं। प्रमोद लड्डू रात को भी परवान पर थी। विकास तिलपट वाले के यहां तिलपट के साथ ही मशहूर पकवान इंदरसा जीभ में पानी लाने के लिए काफी था।
गया में सब कुछ गया-बीता नहीं था। कुछ गया यानी जा चुका था और कुछ नया आ गया था। भोपाल की तरह पहाड़ियों और सरोवरों का छोटा संस्करण है यह शहर। सड़कें साफ-सुथरी थीं हालांकि यह स्वच्छता कुछ पितृ मोक्ष पखवाड़े की आयोजना का हिस्सा भी थी। जिसके बारे में पता नहीं, यहां के लोगों को आगे कितनी नसीब होगी। यद्यपि लोग विकास पर मुग्ध भी हैं। पास का बोधगया तो अंतरराष्ट्रीय पर्यटन का केन्द्र है, जहां कई देशों के बौद्ध मंदिर उन देशों के धार्मिक दूतावासों की तरह विद्यमान हैं। बस, गया का पितृ पक्ष मेला गया कि दिसंबर में बोधगया का बौद्ध मेला आया।
सरकार ने गया को काफी संवारा है। हमारे वाहन चालक शनिकुमार ने कहा- अगली बार आइएगा तो स्टेशन देखकर मन झकास हो जाएगा। इसे विश्वस्तरीय बनाया जा रहा है। गांधी मैदान के ठीक सामने संभाग स्तर के पुस्तकालय का बोर्ड ध्यान खींचता है। पुस्तकालय के इस तरह इतराते द्वार तो हमें मध्यप्रदेश में नहीं दिखते। इसे देखकर नालंदा के उस जलते हुए पुस्तकालय की याद आ जाती है जिसे तेरहवीं सदी में बख्तियार खिलजी ने जलाकर राख कर दिया था। यह ज्ञानभंडार तीन माह तक सुलगता रहा था जिसमें नौ लाख पांडुलिपियां जलकर नष्ट हो गईं थीं। गांधी मैदान के पुस्तकालय में कितनी पुस्तकें हैं पता नहीं कर सका किंतु युवा पाठक बिप्लव ने बताया कि यह अब प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए पढ़ने वालों का एकांत कक्ष बन गया है। यानी नए अर्थों वाला पुस्तकालय।
इस तरह, विकास तो है किंतु इसे बिहार राज्य का विकास नहीं मानिए। आप दक्षिण बिहार में हैं जो पहले ही विकसित है।उत्तर बिहार के लोग इससे रस्क करते हैं। इनके जीवन में भी वैसी ही खुशहाली आने से बिहार की तस्वीर में चटख रंग भर सकेंगे। कभी बीमारू राज्य माने जाने वाले और बिहार की तरह विकास की सभी पायदानों पर सबसे नीचे रहने वाले उत्तर प्रदेश ने पहले ही कई सूचकांकों में ऊपर जगह बना ली है। हालांकि बिहार के बारे में भी कुछ उत्साहवर्धक सूचनाएं हैं। विकास दर के मामले में बिहार का देश में चौथा स्थान है। हाल में प्रकाशित नाइट टाइम लाइट स्टडी के मुताबिक गया, पटना, मुजफ्फरपुर व बेगुसराय तीव्र आर्थिक विकास वाले पांच शीर्ष जिलों में शामिल हैं। पर संतोष की बात यह है कि कई पिछड़े जिले आकांक्षी जिलों में उभरकर आ रहे हैं। इनमें वह अरवल जिला भी है जिसके लक्ष्मणपुर-बाथे गांव में वर्ष 1997 में दबंगों की निजी सेना (रणवीर सेना) ने 58 दलितों को गोलियों से भून दिया था। तब इस गांव को बिजली तक नसीब नहीं थी। आकांक्षी जिलों में दक्षिण बिहार के बांका और जामुई जिला भी हैं। वित्त आयोग के अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया का कहना है कि बिहार ने पिछले लगभग दो दशकों में उच्च आर्थिक विकास दर को बनाए रखा है तथा विभिन्न सामाजिक-आर्थिक विकास संकेतकों में उल्लेखनीय प्रगति दर्ज की है। उन्होंने यह भी कहा कि विभिन्न संकेतकों में राष्ट्रीय औसत को प्राप्त करने के लिए अधिक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
असुर का शहर
फिर विषय पर लौटते हैं। पितृ पक्ष मेला गया में सदियों से भरता रहा है। पुराणों में इसे मोक्ष नगरी कहा गया है, सो देश भर के लोग अपने पितरों की मुक्ति के लिए यहां तब से आते रहे हैं जब देश के भूगोल को भी कई लोग ठीक से नहीं जानते समझते थे। किंतु ठेठ दक्षिणी हिस्से से लेकर बंगाल और कश्मीर तक से हिंदुओं की जमावड़ा होता रहा है। जिस फल्गु नदी में पितरों का तर्पण किया जाता है, वह तो हरियाणा के फल्गु के नाम से जानी गई और गया गयासुर नाम के दैत्य के नाम से जाना गया। संभवतः उत्तर भारत में जालंधर के बाद यह दूसरा शहर है जिसने किसी राक्षस को ऐसा सम्मान दिया। यह राक्षस धर्मप्राण था और उसकी काया के क्षेत्रफल में ही गया की बस्ती बसी, ऐसा पुराणकार बताते हैं। फल्गु के पार सीता कुंड है जहां सीताजी ने अपने ससुर दशरथ का पिंडदान किया था। कथा के अनुसार राम व लक्ष्मण को पिंडदान की सामग्री लाने में देरी होने से मुहुर्तकाल बीत रहा था। सीता को आकाशवाणी से यह बात जाहिर हुई तो उन्होंने फल्गु की रेत से ही पिंडे बनाकर पिंडदान कर दिया। जब राम वापस आए तो उन्होंने इस सत्य को परखने के लिए नदी, तुलसी, गाय, वटवृक्ष व ब्राह्मण से पूछा। वृक्ष को छोड़कर सबने नकार दिया। इस पर सीता ने श्राप दिया। नदी इसी शाप से भूमिगत हो गई। पत्रकारिता के छात्र बिप्लव ने बताया कि इस नदी में कभी पानी नहीं रहता किंतु रेत के नीचे हाथ से खोदते ही पानी आ जाता था। बचपन में वे इस रेत में खेलते हुए इस तरह पानी निकालते थे। अब यहां बांध बनाकर पानी संचित किया गया है। पौराणिक महत्व के वटवृक्ष के तले भी पिंडदान का कर्म किया जाता है। इधर बोधगया में एक पीपल का पवित्र वृक्ष राजकुमार सिद्धार्थ गौतम से जुड़ा है जिन्होंने ज्ञान प्राप्त करने से पहले फल्गु के तट पर छह साल तपस्या की थी।
पंडे है, डंडे नहीं
गयाजी में पंडे न हों, ऐसा तो नहीं हो सकता। पंडों का बड़ा समृद्ध साम्राज्य है। कई तो सामंतों की तरह हैं जिनके यहां कई पंडित-कारिंदे लगे हैं और जो हवेलियों में निवास करते हैं। महंतजी शुल्क लेकर कर्मकांड के लिए अपना दिहाड़ी पंडित पूजा के लिए प्रदान कर देते हैं। इन मठाधीशों के एजेंट रेलवे स्टेशन, बस अड्डों व चौक-चौराहों पर मंडराते हैं और ग्राहक पकड़ते हैं। वे आपके ठहरने से लेकर खान-पान तक की चिंता करते हैं। एक मठाधीश ने अपने 64 कमरों का भवन इसी खातिर सुरक्षित कर रखा है। इससे आप खुश हो सकते हैं कि यहां पंडे डंडे नहीं चलाते यानी बाहुबल का प्रयोग नहीं करते। वरना एक तीर्थ स्थल में तो एक पंडे ने हमारा कॉलर पकड़कर खींचकर ‘दान वसूला’ था। गया में विभिन्न राज्यों के अपने भवन भी हैं जो अपने राज्यों से आने वालों को सुविधा प्रदान करते हैं। राज्य सरकार ने भी अपनी वेबसाइट पर पंडों की सूची व फोन नंबर दिए हैं और किसी तरह की लूटपाट से सुरक्षित करने की कोशिश की है।
अहिल्याबाई की याद
मध्यप्रदेश के इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर (1725-1795) की निशानियां यहां तीन अलग अलग तरह से मिलती हैं। एक, यहां का सबसे प्रमुख मंदिर विष्णुपद मंदिर उनके द्वारा निर्मित है जो अपनी भव्यता और सुंदरता के लिए भी दर्शनीय है। यहां विष्णु का पैर है जिससे उन्होंने दुष्ट गयासुर को दबाकर रखा था। दूसरे, अहिल्याबाई की एक प्रतिमा स्थापित है। तीसरी निशानी लोक ने कुछ अलग तरह से बनाई है। शहर का एक मोड़ अहिल्या मोड़ कहलाता है जिस पर अब आए वक्त जाम लग जाता है।
सिंहस्थ के लिए सबक
पितृ पक्ष मेले की व्यवस्थाओं ने हमारे जेहन में दो वर्ष के बाद मध्यप्रदेश के उज्जैन में लगने वाले सिंहस्थ मेले का अक्स खींच दिया। गया में इस मेले की व्यवस्थाओं के लिए राज्य की नितिश कुमार सरकार की सराहना की जा रही है। योगी आदित्यनाथ का उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद में महाकुंभ को बेहद सुव्यवस्थित तरीके से आयोजित किया जाना हर धार्मिक महामेले के लिए एक मॉडल बन गया है। पड़ोसी बिहार की नितिश कुमार सरकार ने इसे जान लिया था। नतीजतन, गया मेले में हजारों कर्मचारी सेवा के लिए तत्पर थे और स्थानीय लोग सहयोग और सहायता के हर समय हाथ फैलाए थे। पचीस हजार लोगों के निशुल्क ठहरने के लिए तो सरकार ने ही शानदार टेंट सिटी तैयार की थी। सड़कों पर मुफ्त परिवहन उपलब्ध था और जगह-जगह खाने के लिए धर्मार्थ भोजनालय व अन्नक्षेत्र चल रहे थे। राज्य के सहकारिता मंत्री डॉ. प्रेमकुमार दावा कर रहे थे कि इस साल यहां तीस लाख लोग आए जिनकी संख्या पिछले मेले के समय 22 लाख थी।
और यह सब पहली बार नहीं हुआ है। पिछले चार पांच सालों से इस मेले को इसी स्वरूप में गढ़ने की तैयारी चल रही है। फल्गु नदी तट पर सुंदर घाट बनाए गए हैं और नदी में बांध बनाकर शिप्रा की तरह पानी लाया गया है। एशिया का सबसे बड़ा रबर बांध बनाना चर्चा का विषय है। यही नहीं, इसमें गंगाजल लाकर डालने की व्यवस्था ने धर्मालुओं को लुभा लिया है। निश्चित ही इसके लिए नितिश कुमार की सराहना की जा रही है।
नितिश कुमार का भविष्य
तो क्या नितिश कुमार बिहार का चुनाव जीत रहे हैं। कम से कम गया तो वह जीत ही रहे हैं। लेकिन आप आश्चर्य न कीजिए, वह बिहार भी एक बार फिर जीत जाएं। भोपाल में समाचार माध्यमों के जरिए हम यही धारणा लेकर बिहार गए थे कि तेजस्वी यादव और राहुल गांधी खूब दम खम दिखाएंगे और बेचारे नितिश परिणाम के दिन परिदृश्य से साफ हो जाएंगे किंतु दस में से नौ लोग उनकी तरफदारी करते दिखे। लालू के जंगल राज को जेहन रखकर फल्गु के घाटों को निहारती आंखों में एक सपना दिखता है। पितृपक्ष मेला नितिश कुमार की तस्वीरों से पटा पड़ा था। किंतु आश्चर्य की बात यह थी कि पूरे शहर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक भी तस्वीर नजर नहीं आई जबकि वह पिछले महीने ही यहां होकर गए हैं। उद्योगपति मुकेश अंबानी भी माया से वैराग्य के कुछ पलों से साक्षात्कार करने के लिए यहां आ चुके हैं। अगले साल और भीड़ बढ़ेगी। धार्मिक पर्यटन सरकारों की कमाई का भी अच्छा जरिया है। चित्र में बोघगया का महाबोधि बुद्ध मंदिर जो विश्व विरासत में शामिल है तथा देवी अहिल्या द्वारा स्थापित विष्णुपद मंदिर जिसमें विष्णु के चरण हैं।
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शिवकुमार विवेकसाभार फेसबुक से.... |
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